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चुनाव में ओझल जल, जंगल, जमीन के मुद्दे

पिछले 15 सालों में मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार के दौरान राजधानी भोपाल में अंधाधुंध काटे गए पेड़ों और इस वजह से करीब दो डिग्री तक बढ़े शहर के तापक्रम के बारे में जब नई सरकार के मुख्यमंत्री को बताया गया तो उनका कहना था कि विकास के लिए पेड़ तो काटने ही पड़ते हैं। जीने-मरने के बुनियादी मुद्दों और मौजूदा राजनीति के बीच लगातार बढ़ती खाई को समझने के लिए यह एक उदाहरण भर है। विडंबना यह है कि खेती की बर्बादी को लेकर आपस में कोई असहमति नहीं है। प्रस्तुत है, इसी बात को खुलासा करता डॉ. ओ. पी. जोशी का यह लेख।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सर्वोच्च सदन लोकसभा का चुनाव हो चुका है, परंतु चुनावी अभियान से लोक-जीवन के जल, जंगल एवं जमीन के मुद्दे गायब थे । सब जानते हैं कि देश का आर्थिक विकास एवं सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) इन्हीं प्राकृतिक संसाधनों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर रहता है । भारत जैसे कृषि-प्रधान देश में तो ये संसाधन पैदावार बढ़ाने हेतु भी जरूरी हैं । विश्व पर्यावरण एवं विकास आयोग की 1987 में जारी रिपोर्ट में बड़ी दृढ़ता एवं स्पष्टता से कहा गया था कि सभी देशों की सरकारें यह समझ लें कि उनके देश की अर्थव्यवस्था जिस नाजुक धुरी पर टिकी है, वह हैवहा के प्राकृतिक संसाधन, लेकिन चुनाव अभियान बताते रहे कि हमारे देश में जल, जंगल एवं जमीन की कोई पूछ-परख नहीं है।

मसलन, जीवन का आधार माने गए जल की उपलधता लगातार घटती जा रही है । आजादी के समय प्रति व्यक्ति 6000 घन मीटर (घ.मी.) जल उपलध था जो वर्ष 2010 में घटकर लगभग 1600 घ.मी. ही रह गया । ‘केंद्रीय जल-संसाधन मंत्रालय’ के अनुसार यह जल उपलधता वर्ष 2025 में 1341 घ.मी. तथा 2050 तक 1140 घ.मी. ही रह जायेगी । ‘वल्र्ड-रिसोर्स इंस्टीट्यूट’ की मार्च, 2016 की रिपोर्ट के अनुसार भारत का 54 प्रतिशत हिस्सा पानी की कमी से परेशान है । ‘नीति आयोग’ की 2018 की रिपोर्ट में भी बताया गया है कि एक तरफ, देश के लगभग 60 करोड़ लोग पानी की भयानक कमी से जूझ रहे हैं तो दूसरी तरफ, 70 प्रतिशत पानी पीने योग्य नहीं बचा है । भू-जल स्तर गिरने, सूखा, कृषि, कारखानों एवं निर्माण कार्यों में बढ़ती पानी की मांग, सतही जल-स्रोतों के बढ़ते प्रदूषण एवं त्रुटिपूर्ण जल प्रबंधन जैसी चुनौतियां, मौसमी बदलाव एवं जलवायु परिवर्तन के चलते और बढ़ेंगी। जल एवं जंगल के अटूट रिश्ते को कौन नहीं जानता? किसी प्रकृति प्रेमी ने वर्षों पूर्व लिखा था कि जिन पेड़ों, जंगलों पर बादलों के जनवासे (बरात के ठहरने की जगह) दिए जाते थे, उनका सफाया हो रहा है। राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार मैदानी तथा पहाड़ी क्षेत्रों में क्रमश: 33 एवं 66 प्रतिशत भू-भाग पर जंगल होना जरूरी है, परंतु यह स्थिति कहीं ठीक नहीं है । आज देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के लगभग 21-22 प्रतिशत पर ही जंगल हैं। इनमें भी 2-3 प्रतिशत सघन वन, 11-12 प्रतिशत मध्यम वन और 9-10 प्रतिशत छितरे जंगल हैं । देश के 16 पहाड़ी राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में केवल 40 प्रतिशत भाग पर ही जंगल है। उक्ार-पूर्वी राज्यों में देश के जंगलों का एक चौथाई हिस्सा है, परंतु यहां वर्ष 2015 से 2017 के मध्य लगभग 630 वर्ग किमी जंगल क्षेत्र घट गया है। यह इलाका दुनियां के 18 प्रमुख जैव-विविधता क्षेत्रों (हॉट स्पॉट्स) में आता है। जानकारों के अनुसार देश में जंगलों के घटने से 20 प्रतिशत से ज्यादा जंगली पौधों एवं जीवों पर विलुप्ति का खतरा फैल गया है । हिमालयी पर्वतमाला, अरावली पहाडिय़ां, विंध्याचल एवं सतपुड़ा के पहाड़ तथा पश्चिमी-घाट क्षेत्र में भी विकास कार्यों हेतु भारी मात्रा में जंगल काटे गए हैं एवं काटे जा रहे हैं। बीसवीं सदी के अंत तक अरावली पहाडिय़ों के कारण थार के रेगिस्तान की रेत दिल्ली की ओर आ रही है। जाहिर है, देश की राजधानी दिल्ली रेगिस्तान विस्तार की गिरफ्त में है। जल एवं जंगल का जमीन से भी गहरा रिश्ता होता है, योंकि जमीन ही इन दोनों को जगह देकर खेती में भी मददगार होती है । खेती के लिए उपजाऊ भूमि जरूरी है, परंतु हमारे देश में खेती की भूमि पर दो प्रकार के संकट हैं। पहला, बढ़ते शहरीकरण, औद्योगीकरण एवं परिवहन योजनाओं के कारण इसका क्षेत्र घटता जा रहा है। दूसरा, बाढ़, सूखा, अस्लीयता, क्षारीयता, प्रदूषण एवं जल-जमाव आदि कारणों से इसकी उत्पादकता कम हो रही है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद’ (आईसीएआर) ने कुछ वर्ष पूर्व अपने एक अध्ययन में बताया था कि देश की कुल 150 करोड़ हेटर कृषि भूमि में से लगभग 12 करोड़ की पैदावार घट गयी है एवं 84 लाख हेक्टर समस्या ग्रस्त है। आठ राज्यों (राजस्थान, महाराष्ट्र, दिल्ली, झारखंड, गोवा, हिमाचल प्रदेश, नागालैंड एवं त्रिपुरा) में लगभग 40 से 70 प्रतिशत भूमि कई कारणों से बंजर होने की कगार पर है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि देश में जल, जंगल, जमीन एवं खेती के हालात अच्छे नहीं हैं, लेकिन इन पर किसी भी राजनैतिक दल ने सत्रहवीं लोकसभा के इस चुनाव में कोई गंभीरता नहीं दिखाई है । किसानों को कर्जमाफी एवं कुछ राशि देने की ही चर्चाएं होती रहीं हैं, परंतु इससे जल, जंगल जमीन एवं खेती के सुधरने के कोई आसार नजर नहीं आते ।

ये सारे संसाधन मनुष्य के जीवन-यापन हेतु जरूरी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । यह मनुष्य ही आखिरकार चुनाव में भी वोटर या मतदाता होता है । राजनैतिक दल इन संसाधनों के रख-रखाव, संरक्षण एवं उन्हें बढ़ाने की ओर प्रतिबद्धता दर्शाते तो यह वोटरों को लाभ पहुंचाने का ही प्रयास माना जाता । देश में जलवायु परिवर्तन से पैदा समस्याओं के प्रति भी विभिन्न राजनीतिक दलों ने उदासीनता ही दिखायी है । कई देशों में तो अब पर्यावरण संरक्षण हेतु अलग से दल तक बन रहे हैं, परंतु हमारे यहां अभी तक किसी भी लोकसभा चुनाव में पर्यावरण, कोई मुद्दा तक नहीं बना है।